BG 1.23
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ 23 ॥
शब्दार्थ
योत्स्यमानान् – युद्ध करने वालों को; अवेक्षे– देखें; अहम् – मैं; ये-जो; एते-वे; अत्र – यहाँ; समागताः– एकत्र; धार्तराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के पुत्र की; दुर्बुद्धेः– दुर्बुद्धिः युद्धे– युद्ध में; प्रिय– मंगल, भला; चिकीर्षवः – चाहने वाले।
अनुवाद
मुझे उन लोगों को देखने दीजिये, जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये हुए हैं।
अभिप्राय
तो यहाँ पर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को, ‘जो उनके सारथी बने हुए हैं’ उनको कहते हैं – मेरे रथ को ले चलिए । अर्जुन अपनी मनसा बता रहे, अपनी मन की बात बता रहे हैं। अर्जुन देखना चहाता हैं कौन – कौन हैं जो दुर्योधन के ओर से आया हैं । यहाँ दुर्योधन को दुर्बुद्धि बोला गया हैं क्योंकि इसकी बुद्धि जो हैं कपट हैं, ये एक कपटी हैं । यह युद्ध कपट से जितना चाहता हैं, अधर्म से जितना चाहता हैं ।
अब जब दुर्योधन कपटी हैं और उसका साथ दे रहे हैं वह कपटी हैं । तो अर्जुन यही देखना चाहता हैं कि कौन – कौन इसके साथ हैं । एक तो यह कि दुर्योधन दुर्बुद्धि हैं तो बाकी सब इनके साथ देने वाले भी दुर्बुद्धि होंगे । हालांकि भीष्म और द्रोणाचार्य इन सब से अलग हैं । दूसरा अर्जुन यह देखना चाहता हैं कि “मैं जिसे लड़ने वाला हूँ वह कितना शक्तिशाली हैं । हर युद्ध यह जानना जरूरी होता हैं कि शत्रु कितना शक्तिशाली हैं ।
अब इसमे दो चीज हैं एक तो अर्जुन अपनी शत्रु की शक्ति को देखना चाहता हैं । अब हमे भी यह जानना चाहिए की हमारे शत्रु कौन हैं। हम अगर बिज़नस मैन हैं तो हमारा शत्रु कोम्पेटिटर हैं । जॉब कर रह रहे होते हैं हमारे शत्रु हमारे Colleagues (सहकर्मी) होते हैं । हम उन्हे शत्रु समझते हैं हालांकि शत्रु नहीं हैं ।
असली शत्रु कौन हैं हमारा मन और इस मन में बैठे हुए अनर्थ । मतलब जिसका कोई अर्थ नहीं जिसका कोई वैल्यू नहीं । कौन हैं ये – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मतसरता (Pride and Envy) । ये 6 हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं । जो हमारे मन में बैठे हैं और मन भी कैसा हैं वह भी वस में नहीं वह भी धर्म का पालन नहीं कर रहा । वह अपने हिसाब से चल रहा हैं ।
अगर कोई कार स्पीड में जा रही हो और सडेंली उसका ड्राइवर दरवाजा खोलकर बहार कूद जाए और आप पीछे बैठे हो तो आपका क्या होगा – आपकी गाड़ी भी गई और उसके साथ आप भी गए। तो ड्राइवर जो होता हैं वह बुद्धि होती हैं और जब बुद्धि ही नहीं काम करती और बुद्धि को भगवद्गीता के द्वारा भोजन नहीं दिया तोबुद्धि काम नहीं करती और मन टेकओवर कर लेता हैं बुद्धि को। और मन कार के स्टेरिंग के जैसा होता हैं और आप पैसेंजर हो आत्म पैसेंजर हैं।
तो मन जहाँ – जहाँ भाग रहा हैं इन्द्रियों को भगा रहा हैं और वैसे ही हमारा शरीर भाग रहा हैं और हमारे शरीर को भगा रहा हैं और दुःख कौन भुगत रहा हैं – हम। तो हमारा असली शत्रु कौन हैं – स्वतंत्र मन (वह मन जो हमारे वस में नहीं हैं)
और दूसरा चीज यह हैं कि अर्जुन को देखना हैं कि कौन – कौन इसका साथ दे रहा हैं। अगर कोई व्यक्ति अधर्मी हैं तो किन लोगों केसाथ दोस्ती करेगा – अधर्मी के साथ। परेशानी का सबसे बड़ा कारण यही हैं। हरे कृष्णा।